Monday, August 10, 2009

आप भूले तो नहीं होंगे इस क्लासिक वेताल कथा को

बचपन में पढ़ी वेताल की कुछ कथाएँ मन-मस्तिष्क पर कुछ इस तरह चस्पा हैं कि ना सिर्फ़ ये कहानियाँ पहली बार पढ़ने की स्मृति है बल्कि उससे जुड़ी हुई अन्य घटनाएं भी. बड़े भाई साहब उम्र में मुझसे पांच वर्ष आगे हैं. मैं कोई छै: साल का था और वे थे लगभग ग्यारह के. इन्द्रजाल का शौक उन्हीं से होता हुआ मुझमें प्रविष्ट हुआ था. वेताल और मैण्ड्रेक के प्रति दीवानगी ने मुझे उनकी मित्र-मंडली से भी अच्छी तरह परिचित करवा दिया था, क्योंकि उनके कुछ दोस्तों के पास होता था इन्द्रजाल का खजाना. ये वो लोग थे जिनके परिजनों ने इन्द्रजाल कॉमिक्स की वार्षिक ग्राहकी ले रखी थी और जिनके पास पुराने अंक संभले रखे हुए थे. जब भी भाई साहब के ये दोस्त लोग उनसे मिलने आते थे, तो मेरे अनुरोध पर कुछ अंक साथ ले आते थे. जब तक दोस्तों की बातचीत जारी रहती, मैं दो-तीन कॉमिक्स निपटा लेता था. धीरे-धीरे मैंने काफ़ी सारे पुराने अंक पढ़ डाले.

वेताल की एक खास कहानी पढ़ने की याद भली प्रकार से है. ये जंगल गश्ती दल और दलद्ली चूहों की कहानी थी. इसमें वेताल के लिये सचमुच एक बड़ी चुनौती थी और पढ़्ते समय आगे के घटनाक्रम को लेकर भारी रोमांच और उत्सुकता मन में थी. आज इसी कहानी को आपके लिये पोस्ट कर रहा हूं. आशा है आपको भी यादों के सागर में एक बार फ़िर डुबकी लगाने में आनंद आयेगा.

ये वेताल की ऑल टाइम क्लासिक कहानियों में से एक मानी जाती है. सबसे पहले सन १९५९ में अमेरिकी समाचार-पत्रों में दैनिक कॉमिक पट्टिका के रुप में प्रकाशित हूई थी. इन्द्रजाल में इसका प्रकाशन १५ अगस्त, १९७६ के अंक में हुआ और मुझे शायद १९७९ या १९८० में पहली बार पढ़ने को मिली थी और दिलो-दिमाग पर एकदम छा गयी थी.

कहानी:

आजीवन कारावास की सजा पाये कुछ दुर्दांत हत्यारों को लेकर एक पानी का जहाज सुदूर स्थान की ओर जा रहा था. अचानक मौका पाकर ये कैदी चालक-दल पर हमला बोल देते हैं और थोड़े खून-खराबे के बाद आजादी हासिल कर लेते हैं. जहाज के रेडियो यंत्र को तोड़-फ़ोड़ कर, छोटी नौकाओं में बैठकर ये छिपने के लिये नजदीक के जंगल का रुख करते हैं. इनका लीडर है "ऑटर" जो इनमें सबसे बेरहम और खतरनाक है. वह जंगल में ही पला-बढ़ा है और जंगल के बीचों-बीच स्थित भयानक दलदल में सुरक्षित घुसने का एक खुफ़िया रास्ता जानता है. वह इन भगोड़े कैदियों को अपने साथ दलदल में ले जाता है.

अब शुरु होता है अपराधों का सिलसिला. ये खूंख्वार अपराधी रात के सन्नाटों में दलदल से निकलते हैं, निकट के कस्बों में डकैती वगैरह को अंजाम देते हैं या नज़दीक के हाईवे से गुजरने वाले वाहनों से लूटपाट करते हैं और फ़िर वापस खूनी दलदल में जाकर छिप जाते हैं. पुलिस इनका पीछा नहीं कर सकती क्योंकि पैरों के निशान दलदल के मुहाने पर जाकर समाप्त हो जाते हैं और उससे आगे जाना मौत को सीधा बुलावा देना है. जल्दी ही ये गिरोह, दलदली चूहों के नाम से कुख्यात हो जाता है.

इनसे निपटने की जिम्मेदारी वेताल जंगल गश्ती दल को सौंपता है. (वेताल ही इस दल का अज्ञात सेनापति है). दल के प्रमुख कर्नल वीक्स अपने दो सैनिकों को रहस्य का पता लगाने के लिये भेजते हैं लेकिन दोनों सैनिक दलदली चूहों की गिरफ़्त में आ जाते हैं. वेताल स्थिति की गम्भीरता को भांपते हुए जंगल गश्ती दल को इस मुहिम से दूर रहने का आदेश देकर मामले को स्वयं अपने हाथ में ले लेता है.

अब शुरू होता है सीधा मुकाबला. दोनों पक्षों की स्थिति लगातार ऊपर-नीचे होती रहती है. कभी वेताल हावी होता है तो कभी "ऑटर" और साथी. कई रोमांचक घटनाओं से गुजरने के बाद आखिरकार दलदली चूहे काबू में कर लिये जाते हैं.

दोनों गश्ती सैनिक छुड़ा लिये जाते हैं. कर्नल वीक्स अचरज में हैं. इन दोनों सैनिकों को सेनापति के साथ काम करने का दुर्लभ मौका मिला. क्या वे जान पाए कि तीन सौ साल पुराने जंगल गश्ती दल का अज्ञात सेनापति आखिर कौन है. "उसका चेहरा नकाब से ढंका हुआ था", मायूस करने वाला ज़वाब मिलता है. रहस्य कायम रहता है.



एक बात और. दैनिक कथाओं को कॉमिक्स के फ़ॉर्मेट में छापने के लिये अक्सर कहानियों में कुछ काट-छांट करना आवश्यक हो जाता है. कभी-कभी कुछ सीक्वेंस पूरी तरह उड़ा दिये जाते हैं तो कभी कुछ पैनल्स को कतर कर ठूसना होता है. इन सब से कहानी का कुछ मजा खराब होता है. इन्द्रजाल में भी कुछ हद तक ये सब देखने को मिलता है. ओरिजिनल स्ट्रिप से तुलना करें तो ही पता चलता है. इस कहानी का पहला ही पेज देखिये. और फ़िर इस पेज को देखिये जो स्ट्रिप से बनाया गया है. एक पैनल में कुछ काट-छांट नजर आयेगी. आई ना?

श्वेत-श्याम स्ट्रिप में रंगीनियाँ भरने की जुर्रत मेरी खुद की है.

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Saturday, August 8, 2009

प्रोफ़ेसर का रहस्य, एपिसोड ०३: "रवानगी"

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पिछली कड़ी:
एपिसोड नं. ०२: "बो-स्ट्रीट"
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(अब आगे)
ऐसी कई बातें हैं जिनको लेकर प्रोफ़ेसर से मिलने की मेरी इच्छा प्रबल थी. एक खोजी चैनल के एरिया हेड होने के नाते नित्य नयी रोचक खबरों के लिये धमासान करते रहना मेरी आम दिनचर्या का अंग है. लेकिन एक भारतवंशी प्रोफ़ेसर का इस प्रकार सुदूर अफ़्रीका में बस कर नाम कमाना और फ़िर उनके इर्द-गिर्द रहस्यों का इतना घना आवरण होना भी आकर्षित करने के लिये पर्याप्त कारण थे.

कुछ माह पहले मैंने उनसे संपर्क साधने का प्रयास किया था. मुझे आशा थी कि किसी और वजह से ना सही पर एक भारतवंशी होने के नाते वे शायद मुझसे मिलने को तैयार हो जाएँ. पर मेरी सभी आशाओं पर उस समय कुठाराघात हो गया था जब मुझे उनके द्वार से यह टका सा जवाब देकर टाल दिया गया कि प्रोफ़ेसर की तबीयत कुछ ठीक नहीं है और वे सभी मुलाकातों से परहेज कर रहे हैं. मुझसे मेरा संपर्क सूत्र छोड़ने के लिये कह दिया गया था और साथ में यह भी कि जब भी प्रोफ़ेसर चाहेंगे, वे मुझसे मुलाकात करेंगे. एक मीडिया कर्मी इतनी आसानी से हार नहीं मानता और मैंने भी प्रयास में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी लेकिन बात बन ना सकी और आखिरकार मन मसोसकर मुझे केवल अपना विज़िटिंग कार्ड छोड़ कर चले आना पड़ा था. न जाने क्यों मुझे अपने प्रिय लेखक ली फ़ॉक का ये डायलॉग बार-बार याद आया था कि आप वेताल को नहीं ढूंढते, वह आपको ढूंढ लेता है. लेकिन प्रोफ़ेसर शास्त्री कोई वेताल जैसा मनगढ़ंत कॉमिक चरित्र तो नहीं हैं. हालांकि उनके इर्द-गिर्द रहस्यों का कुहासा कुछ वैसा ही छाया है जैसा कि वेताल के साथ. इस सीमा से आगे दोनों में समानता समाप्त हो जाती है.

इस घटना को हुए कोई छ्ह-सात माह गुजर गये. प्रारम्भ में कुछ समय मैंने इस आशा को मन में बनाये रखा कि शायद प्रोफ़ेसर के यहां से बुलावा आ ही जाये. लेकिन हर गुजरते दिन के साथ उम्मीद की किरणें निराशा के धुंधलके में खोती चली गयीं और फ़िर धीरे-धीरे मैं इस घटना को बिल्कुल ही भूल कर रोजमर्रा के कार्यों की भागदौड़ में व्यस्त हो गया. इस बीच चैनल ने काफ़ी विस्तार किया और हमें अपनी टीम के सद्स्यों की संख्या भी उसी अनुपात में बढ़ानी पड़ी. काम का बोझ बढ़ता गया और मैंने भी प्रोफ़ेसर से मिलने के खयाल को पूरी तरह दिमाग से निकाल दिया.

लेकिन आज अचानक पोस्ट से उनका निमंत्रण पाकर काफ़ी सारी दबी हुई इच्छाएँ एक बार फ़िर दिल के किसी कोने से निकलकर सामने उपस्थित हो गयीं. मैं बेहद उत्साहित था. कितनी ही सारी बातें तो हैं जो उनसे पूछनी हैं, कितने ही सारे सवाल एक श्रंखलाबद्ध तरीके से मेरे मस्तिष्क में चक्कर काटने लगे. लेकिन आमंत्रण-पत्र में साफ़ कहा गया था कि मैं कोई कैमरा या रिकॉर्डिंग का सामान अपने साथ नहीं ले जा सकता था. मतलब स्पष्ट था कि प्रोफ़ेसर चाहते थे कि उनसे मेरी मुलाकात प्रोफ़ेशनल ना होकर सिर्फ़ व्यक्तिगत ही रहे. "समथिंग इज़ बैटर दैन नथिंग", मैंने मन ही मन सोचा, कुछ नहीं से कुछ भला. चैनल का न सही, अपना ही स्वार्थ कुछ सध जाए तो क्या बुरा है? प्रोफ़ेसर शास्त्री जैसी बड़ी हस्तियों से निजी मुलाकात का अवसर भी आखिर कितनों को मिलता है?

रविवार में सिर्फ़ चार दिन बाकी थे मगर तब तक की प्रतीक्षा भी कठिन प्रतीत हो रही थी. सापेक्षिकता के सिद्धांत का पालन करता हुआ समय मंथर गति से चलता रहा और अंतत: बहुप्रतीक्षित दिन आ ही पहुंचा. मेरे अपार्टमेंट से प्रोफ़ेसर के घर की दूरी मुश्किल से दस मिनिट की है पर समय की पाबंदी के सम्बन्ध में आमंत्रण-पत्र की चेतावनी को पूरी श्रद्धा से याद करते हुए मैं नियत समय से आधा घंटा पहले ही अपनी कार निकालकर धड़कता दिल और अनिर्वचनीय उत्सुकता साथ लिये बी-१६, बो-स्ट्रीट की ओर रवाना हो गया.
(जारी है) 

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अगली कड़ी:
एपिसोड नं. ०४: "प्रोफ़ेसर शास्त्री"
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Friday, August 7, 2009

प्रोफ़ेसर का रहस्य (कहानी), एपिसोड ०२: "बो-स्ट्रीट"

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पिछली कड़ी:
एपिसोड नं. ०१: "आमंत्रण-पत्र"
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 (अब आगे)

मॉरिसटाउन, बंगाला के पश्चिमी तट पर बसा हुआ आधुनिक शहर, गगनचुम्बी इमारतों और सभी आधुनिक सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण और जो हरेक लिहाज से दुनिया के किसी भी बड़े शहर का मुकाबला करने में सक्षम है. यहां बसता है एक सभ्य और सुसंस्कृत समाज जो अपने प्रिय राष्ट्रपति डॉ. लुआगा की देख-रेख में तेजी से उन्नति के पथ पर अग्रसर है.

बो-स्ट्रीट, मॉरिसटाउन का एक प्रसिद्ध इलाका है जहां शहर की कई नामी-गिरामी हस्तियां निवास करती हैं. बो-स्ट्रीट दरअसल एक चौड़ी सी सड़क है जो काफ़ी लम्बाई तक सीधी चलती जाती है और फ़िर कुछ इस प्रकार से दो बार घूमती हुई वापस आकर मिलती है कि एक धनुष की सी आकृति बनती है. इसीलिये ये नाम. सड़क के बीच में घिरे हुए दोनों हिस्सों में दो बड़े और खूबसूरत पार्क्स हैं जो पूरी तरह हरी घास की चादर से ढंके रहते हैं. करीने से कटी हुई झाड़ियों और टहलने के लिये तैयार किये गये ग्रेवल के साथ किस्म-किस्म के रंग-बिरंगे फ़ूलों के पौधे जहां पार्क्स को हसीन और दिलकश रंगत प्रदान करते हैं वहीं कई तरह की सुगंध भी हवा में बिखरी रहती हैं और जो यहां आने वाले सैलानियों का मन मोहती रहती हैं. पार्क्स के ऊंचे पेड़ आसमान की ऊंचाई नापने की जद्दोजहद में व्यस्त प्रतीत होते हैं.

सुबह-शाम बच्चों की कई टोलियाँ यहां धमा-चौकड़ी मचाती रहती हैं. दिन के समय बच्चे कम नजर आते हैं और शोर-शराबा भी कम ही होता है. दरअसल ये समय होता है जब कई प्रेमी जोड़े यहां वहां बैठे नजर आते हैं. अपनी रोमांटिक दुनिया में डूबे ये लोग अन्य सैलानियों से बिल्कुल अनजान प्रतीत होते हैं या कहिये कि उनकी वहां उपस्थिति से पूरी तरह लापरवाह. प्रेम से गुटरगूं करते इन जोड़ों के लिये ये पार्क्स आदर्श स्थल कहे जा सकते हैं. समुद्र तट यहां से काफ़ी नज़दीक है और गर्मियों के दिनों में जब शीतल पवन समुद्र से तट की ओर चलती हैं तो पार्क में सैलानियों की संख्या में और बढ़ोतरी हो जाती है. देर रात तक यहां लोगों की भीड़ देखी जा सकती है.

सड़क के एक ओर विशालकाय भवन निर्मित हैं जिनकी बनावट और आकार यहां के निवासियों की समृद्धि की दास्तां आप बयान करते हैं. मकानों के आगे के हिस्से में छोटे-छोटे बगीचे हैं जहां मकान स्वामियों ने अपनी-अपनी रुचि के अनुसार पौधे, फ़ल, सब्जी आदि लगा रखे हैं. किसी-किसी घर के बाहर झूले आदि भी देखे जा सकते हैं. कुल मिलाकर बो-स्ट्रीट एक ऐसी जगह है जो किसी के लिये भी रिहाइशी तौर पर एक आकर्षण का बिन्दु हो सकती है.

प्रोफ़ेसर शास्त्री का घर सीधी वाली सड़क के लगभग मध्य में स्थित है. मेरा प्रोफ़ेसर से कभी व्यक्तिगत तौर पर मिलना नहीं हुआ लेकिन वे इतनी प्रसिद्ध हस्ती हैं और उनके बारे में समाचार-पत्रों में इतना कुछ छ्पता रहता है कि मुझे वे कभी भी अपरिचित इंसान नहीं लगे. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी बराबर उनके बारे में समाचार देता रहता है. मेरा अपना चैनल, मिस्ट्री चैनल, भी उनके बारे में अक्सर कोई न कोई रिपोर्ट देता ही रहता है. प्रोफ़ेसर शास्त्री मॉलेक्यूलर बायोलॉजी के क्षेत्र में दुनिया भर में पहचाने जाते हैं. नोबल पुरस्कार के लिये भी नामित हो चुके हैं. बंगाला के लिये तो वे गर्व का विषय हैं ही. लेकिन वास्तव में उनके जिस रूप को लेकर मुझे मिलने की उत्कंठा थी वह यह है कि प्रोफ़ेसर के बारे में कई तरह की अजीब बातें भी दबी ज़बान से की जाती हैं. जैसे कि वे किसी अत्यंत गोपनीय प्रयोग में संलग्न रहे हैं, या शायद अब भी हैं. उनके संबंध कुछ अजीब सी जंगली जातियों से हैं और वे अक्सर गायब होकर जंगल में चले जाते हैं. कभी-कभी उनके निवास के आस-पास कुछ अजीब सी वेशभूषा में जंगली लोग देखे जाने का भी दावा किया जाता रहा है पर इन बातों की कभी पुष्टि नहीं हो सकी और ये सब बातें महज अफ़वाहों का दर्जा पाकर ही रह गयीं.
(अभी जारी है) 

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अगली कड़ी:
एपिसोड नं. ०३: "रवानगी"
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Thursday, August 6, 2009

प्रोफ़ेसर का रहस्य (कहानी), एपिसोड ०१: "आमंत्रण-पत्र"

हो सकता है कि आपकी स्मृति मुझसे अधिक तीक्ष्ण हो और आप ठीक-ठीक याद कर सकते हों कि आपने अंतिम बार कलम और कागज का इस्तेमाल कर अपने हाथों से कोई पत्र कब और किसे लिखा था. लेकिन मेरे स्मृति-कोष में ऐसे किसी पत्र के कोई चिह्न नहीं मिलते, कब के साफ़ हो चुके. अपना स्वयं का लिखा तो छोड़िये मुझे तो ये भी स्मरण नहीं कि अंतिम बार कोई हस्तलिखित पत्र मैंने प्राप्त कब किया था. स्थिति तो यहां तक पहुंच गयी है कि अगर वार्षिक ग्राहकी वाली पत्रिकाएँ देने उसे ना आना पड़ता और इस बहाने कभी-कभार उससे मुलाकात ना होती रहती तो मैं सरकारी पोस्टमैन की शक्ल तक कब की भूल चुका होता. आखिर ई-मेल और एस-एम-एस के इस जमाने में स्नेल-मेल को अब पूछता ही कौन है? तो ऐसे में इस बार जब पोस्टमैन ने रीडर्स डाइजेस्ट के नये अंक के साथ एक लिफ़ाफ़ा भी सौंपा जिस पर हाथों से मेरा नाम-पता लिखा हुआ था तो मुझे थोड़ा अचरज होना स्वाभाविक ही था. लेकिन मेरा आश्चर्य उस समय कई गुना बढ़ गया जब मैंने पत्र भेजने वाले का नाम पढ़ा. सुस्पष्ट अक्षरों में सुन्दर लिखावट में साफ़-साफ़ लिखा था - प्रेषक: प्रोफ़ेसर सुधान्शू ए. शास्त्री.

मेरे दिल की धड़कन काफ़ी बढ़ चुकी थी और मैंने बिना कोई समय गंवाए लिफ़ाफ़ा खोलकर तत्क्षण पढ़ना शुरु किया. लिखा था:

प्रिय श्रीमान वेताल शिखर*,

हमें आपको सूचित करते हुए प्रसन्नता है कि प्रोफ़ेसर शास्त्री ने आपके अनुरोध को स्वीकार करते हुए आपसे मुलाकात के लिये अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी है. आप अगले रविवार २६ जुलाई, २००९ को दिन में १:०० बजे उनके निवास स्थल पर दोपहर भोज के लिये आमंत्रित किये जाते हैं. तत्पश्चात आप प्रोफ़ेसर से निजी बातचीत की सुविधा का भी लाभ उठा सकते हैं.

लेकिन आपको यह स्पष्ट रूप से बता दिया जाता है कि आप अपने साथ किसी भी किस्म की कोई रिकॉर्डिंग डिवाइस नहीं ला सकते. प्रोफ़ेसर के साथ आपकी बातचीत नितांत व्यक्तिगत रहेगी और इसका कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाएगा. आप इस बातचीत के किसी भी अंश को अपने किसी व्यवसायिक प्रयोग में नहीं ला सकेंगे.

कृपया ध्यान रहे कि प्रोफ़ेसर से मिलने आने वाले सभी आगंतुकों की अच्छी तरह से तलाशी ली जाती है. समय का विशेष ख्याल रखने की हिदायत दी जाती है.


ज़हीन खान
व्यक्तिगत सहायक, प्रोफ़ेसर सुधान्शु ए. शास्त्री
बी- १६, बो-स्ट्रीट, मॉरिसटाउन, बंगाला

एक निमंत्रण पत्र से ऐसी कठोर भाषा की अपेक्षा आप आम तौर पर नहीं रखते. मगर ये कोई आम मामला भी तो नहीं था. इस उम्रदराज़ और उच्च कोटि के विद्वान प्रोफ़ेसर से मिलने की अनुमति पा लेना ही दरअसल अपने आप में एक बड़ी कामयाबी थी. वैसे भी इस तरह के झक्की जीनियस लोग अपनी अलग ही दुनिया में खोए रहते हैं और समाज के केंद्र से काफ़ी अलग-थलग रहते हैं. उम्र के साथ भी व्यक्ति के स्वभाव में थोड़ा रूखा-सूखा और चिड़चिड़ापन आ ही जाता है. तो मैने पत्र की भाषा को नज़र अंदाज किया और अगले रविवार की तैयारी में जुट गया.

सबसे पहले अपने पी-डी-ए (पर्सनल डिजिटल असिस्टेंट) में अगले रविवार के दिन की एन्ट्री तलाश की. मधु के साथ उसकी पसंद के किसी रेस्टॉरेंट में लंच का कार्यक्रम था जो काफ़ी समय तक टलने के बाद आखिरकार आने वाले रविवार के दिन के लिये तय किया गया था. मधु को प्रोग्राम टालने की वजह समझाने में कोई खास दिक्कत नहीं आयेगी, ऐसा मेरा सोचना था, और प्रोफ़ेसर शास्त्री के नाम से ही वो स्थिति की गंभीरता का आंकलन कर लेगी. मधु समझदार लड़की है. सिर्फ़ दो वर्षों में जूनियर प्रेसेंटर के पद से तरक्की करते हुए सीनियर एडिटर के पद तक पहुंच गई है. और यकीन मानिये कि इसमें उसकी अपनी लगन और कार्य-द्क्षता के अलावा और कोई वजह नहीं है. इस प्रगति के दौरान उसने जिन तथाकथित बड़े लोगों को पीछे छोड़ा है उनमें से कुछ उसकी इस ताबड़तोड़ तरक्की की वजह उसकी विलक्षण सुन्दरता में ढूंढने का भोंडा और भद्दा प्रयास करते हैं, लेकिन जैसा कि मैंने पहले कहा, उसकी कार्य-कुशलता हमेशा उसे इन सभी महारथियों से चार कदम आगे रखती है. मैं उसे समझा लूंगा, मुझे पक्का यकीन था.

मैंने पी-डी-ए में पुरानी एन्ट्री को नयी से रिप्लेस किया: मोस्ट अर्जेंट, रविवार, २६ जुलाई, २००९, दोपहर १:००, टु मीट प्रोफ़ेसर शास्त्री एट हिज़ रेज़ीडेंस. सेव करके मैंने यंत्र को टेबिल पर रखा और अन्य कार्यों में संलग्न हो गया.
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* असली नाम बदल दिया गया है.

(अभी जारी है) 

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अगली कड़ी:
एपिसोड नं. ०२: "बो-स्ट्रीट"
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Tuesday, August 4, 2009

चंबल की घाटियों में दहकता प्रतिशोध

वह बचपन की एक उदास धुंधली शाम थी। जब क्षितिज से सुरमई धुआं उठने लगता और घरों में साठ वाट के बल्ब की पीली रोशनी चमकने लगती थी। शाम को परिवार के बड़े घर लौटते तो कुछ नया घटित होने का चस्का भी रहता था। बड़े भाई के हाथ में इंद्रजाल कॉमिक्स का नया अंक देख लिया तो फिर क्या कहना, बस इस बात का झगड़ा रहता था कि कौन पहले पढ़ेगा। ऐसी ही एक शाम आज भी स्मृति में बसी हुई है। इस बार इंद्रजाल कॉमिक्स के कवर पर एक अनजान शख्स था। शीर्षक था, लाल हवेली का रहस्य। किरदार था, बहादुर। यह थी बहादुर सिरीज की पहली कॉमिक्स। हिन्दी और गुजराती के लेखक और चित्रकार आबिद सूरती ने इस सिरीज के आरंभ के तीन टाइटिल को किसी क्लासिक जैसी ऊंचाइयां दी थीं। ये तीन कहानियां बहादुर के किरदार और उसके वातावरण के विकास को सामने रखती थीं।


यह बिल्कुल नया अनुभव था। यहां गांव था, गली में भौंकते कुत्ते थे। चंबल की नदी, पुल और डकैत थे। मां थी। प्रतिशोध की तपिश थी। आम नायकों से हटकर हम पहली ही कड़ी में बहादुर को एक भटके हुए इनसान के रूप में पाते हैं। जिसका पिता एक डकैत था और उसे ही वह अपना आदर्श मानता था। उसने अपनी मां को वचन दिया था कि अपने पिता के ह्त्यारे इंस्पेक्टर विशाल को खत्म करके वह अपना प्रतिशोध पूरा करेगा। वह अपने घर में साइकिल के पाइप से देसी बंदूक तैयार करता है। कहानी की शुरुआत में ही अद्भुत ड्रामा था। डकैत पूरे गांव मे लूटपाट करते हैं मगर लाल हवेली की तरफ आंख उठाकर भी नहीं देखते। विशाल हवेली के भीतर मां और बेटे के संवाद अजीब सा एकालाप रचते हैं। मां बाहर गोलियों की आवाज से थोड़ा भयभीत होती है, तो बेटा कहता है कि फिक्र मत करो यहां कोई नहीं आएगा।

कहानी मे आगे बहादुर एक डकैत से वादा करता है कि वह अपना प्रतिशोध लेकर बीहड़ों में आ जाएगा। कहानी के एक लंबे नाटकीय मोड़ में विशाल खुद बहादुर के पास निहत्था पहुंचता है। इंस्पेक्टर विशाल उसे उन जगहों पर जाता है जहां बहादुर के पिता के अत्याचार निशानियां अभी भी मौजूद हैं। बहादुर के भीतर से अपने पिता की रॉबिनहुड छवि टूटती है। अंर्तद्वंद्व के गहरे क्षणों से गुजरने के बाद वह तय करता है कि पिता के गुनाहों का प्रायश्चित करने का एक ही उपाय है कि वह खुद को डकैतों के खिलाफ खड़ा करे। गांव मे एक बार फिर डकैतों का हमला होता और इस बार लाल हवेली से गोली चलती है।


यह दुर्भाग्य था कि आबिद सूरती जैसे कलाकार को वह शोहरत नहीं मिली जिसके वे हकदार थे। उनकी यह कॉमिक्स किंग फीचर्स सिंडीकेट की कई चित्रकथाओं पर भारी पड़ती थी। कॉमिक्स की पटकथा और चुटीले संवाद आबिद सूरती के होते थे और चित्र गोविंद ब्राह्रणिया के। यहां मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि बहादुर किरदार मुझे उसी वक्त कर पसंद आया जब तक आबिद उससे जुड़े रहे। इसके बाद जगजीत उप्पल (शायद यही नाम था) बहादुर को लिखने लगे और वह बहुत खराब हो गया। यहां तक कि गोविंद के चित्रों में भयंकर रूप से कल्पनाशीलता का अभाव दिखने लगा। बहादुर ने शहरों का रुख कर लिया, जासूसी किस्म की हल्की-फुल्की कहानियों के बीच वह किरदार फंसकर रह गया।

आबिद में ऐसी क्या खूबी थी इस बारे में मैं कुछ लिखना चाहूंगा। सबसे बड़ी बात उन्हें फ्रेम दर फ्रेम अपनी बात को एक नाटकीय विधा में कहने की कला आती थी। सिनेमा की शाट्स टेक्नीक का उन पर गहरा प्रभाव था। उन्हें पता था कि फ्रेम के भीतर किस आब्जेक्ट को हाईलाइट करना है। पहली ही कॉमिक्स में हम देखते हैं चंबल का विशाल कैनवस, उड़ती धूल और दौड़ते घोड़े। गांव के चित्रण में वे छोटी-छोटी बारीकियों का ध्यान रखते थे, गोलाबारी के दौरान भौंकते कुत्ते तक का... कुछ जगहों पर उन्होंने आंखों को एक्स्ट्रीम क्लोजअप की स्टाइल में चित्रित किया था जो मुझे आज भी याद है। आबिद की भारतीय जनमानस और स्थानीयता पर गहरी पकड़ थी।

कुछ साल पहले लखनऊ में हुई एक मुलाकात में आबिद ने बताया कि जीवन के आरंभिक दिनों के संघर्ष में उन्होने बतौर क्लैप ब्वाय काम किया, और सिनेमा एडीटिंग की बारीकियां सीखीं जो बाद मे कहानी कहने की कला में उनके ज्यादा काम आया। उन्होंने कुछ समय शायद बतौर पत्रकार भी काम किया था, लिहाजा बहादुर के परिवेश के लिए उन्होंने काफी शोध किया था। उन दिनों चंबल मे डाकुओं का काफी आतंक था, वहां आई खबरों से ही उन्हें उस परिवेश को चुनने का आइडिया मिला।


बहादुर की कॉमिक्स में कुछ बड़े ही दिलचस्प किरदार मिले। इसमें उसकी प्रेमिका बेला, सुखिया, मुखिया जैसे तमाम लोग थे। इनमें से सुखिया मुझे बहुत पसंद था। एक घरेलू और बूढ़ा आदमी जिसके परिवार को डकैतों ने खत्म कर दिया बाद में नागरिक सुरक्षा दल का एक कड़क कैडेट बन जाता है। बहादुर ने जिस जीवन को एक्सप्लोर किया था, उसमे आज भी बहुत संभावनाएं हैं। कुछ-कुछ डोगा कॉमिक्स ने इसे पकड़ने की कोशिश की थी मगर वह बात नहीं बन पाती, उसमें बहुत ज्यादा मेलोड्रामा है तो वह बी-ग्रेड फिल्मों के स्तर तक ही पहुंच पाता है।

एक्स्ट्रा शॉट्स

आबिद सूरती ने कुछ और बहुत दिलचस्प कॉमिक्स तैयार किए थे। इनमें से दो मुझे ध्यान हैं इंस्पेक्टर आजाद और इंस्पेक्टर गरुड़। इनका परिवेश अक्सर ग्रामीण या कस्बई होता था। लोगों का रहन-सहन पोशाक और कैरेक्टराइजेशन बहुत दिलचस्प थे। इंस्पेक्टर आजाद की कुछ कॉमिक्स बाद मे गोवरसंस कामिक्स जो मधुमुस्कान वाले निकालते थे छापी थी, पर शायद वह पापुलर नहीं हो सकी। इंस्पेक्टर आजाद सिरीज में उन्होंने आजादी से पहले भारत में रहने वाली एक लुटेरा जनजाति पिंढारियों पर आधारित एक कॉमिक्स लिखी थी जो बेहद दिलचस्प थी।


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Saturday, August 1, 2009

इंद्रजाल कॉमिक्सः वो कहानियां, वो किरदार

इंद्रजाल कॉमिक्स में जाहिर तौर पर ली फॉक के किरदार ही छाए रहे, मगर बीच का एक दौर ऐसा था जब इसने कुछ नए और बड़े ही दिलचस्प कैरेक्टर्स से भारतीय पाठकों से रू-ब-रू कराया। मैं उन्हीं किरदारों पर कुछ चर्चा करना चाहूंगा। कॉमिक्स की बढ़ती लोकप्रियता के चलते 1980 में टाइम्स ग्रुप ने इसे पाक्षिक से साप्ताहिक करने का फैसला कर लिया। यानी हर हफ्ते एक नया अंक। शायद प्रकाशकों के सामने हर हफ्ते नई कहानी का संकट खड़ा होने लगा। 1981-82 में अचानक इंद्रजाल कॉमिक्स ने किंग फीचर्स सिंडीकेट की मदद से चार-पांच नए किरदार इंट्रोड्यूस किए। मेरी उम्र तब करीब दस बरस की रही होगी। मुझे ये किरदार बहुत भाए। इसकी एक सबसे बड़ी वजह यह थी कि ये सारे कैरेक्टर वास्तविकता के बेहद करीब थे। उन कहानियों में हिंसा बहुत कम थी और वे एक खास तरीके से नैतिक मूल्यों का समर्थन करते थे।


सबसे पहले जो कैरेक्टर सामने आया वह था कमांडर बज सायर का। कमांडर सायर की पहली स्टोरी इंद्रजाल कॉमिक्स में शायद खूनी षड़यंत्र थी। कमांडर सायर की कहानियों की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि उनके कैरेक्टर वास्तविक जीवन से उठाए हुए होते थे। इनके नैरेशन में ह्मयूर का तड़का होता था। इनमें से कई कहानियां क्राइम पर आधारित नहीं होती थीं। वे सोशल किस्म की कहानियां होती थीं। जैसा कि मुझे याद है एक कहानी सिर्फ इतनी सी थी कि एक बिल्ली का बच्चा पेड़ पर चढ़ जाता है और उतरने का नाम नहीं लेता। फायर ब्रिगेड वाले भी कोशिश करके हार जाते हैं। आखिर कमाडंर सायर पेड़ पर चढ़कर उसे पुचकार कर उतारते हैं। एक अकेली विधवा मां और उसके बच्चे की कहानी, अनजाने में अपराधी बन गए दो बच्चों की कहानी... कुछ यादगार अंक हैं। आम तौर पर इनका कैनवस अमेरिकन गांव हुआ करते थे।


इसके तुरंत बात दूसरा कैरेक्टर इंट्रोड्यूस हुआ कैरी ड्रेक का। ड्रेक एक पुलिस आफिसर था। यहां भी कुछ खास था। पहली बात किसी भी कॉमिक्स मे कैरी ड्रेक बहुत कम समय के लिए कहानी में नजर आता था। अक्सर ये कहानियां किसी दिलचस्प क्राइम थ्रिलर की बुनावट लिए होती थीं। कैरेक्टराइजेशन बहुत सशक्त होता था। एक और खास बात थी कैरी ड्रेक के अपराधी किसी प्रवृति के चलते अपराध नहीं करते थे। अक्सर परिस्थितियां उन्हें अपराध की तरफ ढकेलती थीं और वे उनमें फंसते चले जाते थे। इन कहानियों का सीधा सा मोरल यह था कि अगर अनजाने में भी आपने गुनाह की तरफ कदम बढ़ा लिए तो आपको अपने जीवन में उसकी एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी और तब पछतावे के सिवा कुछ हाथ नहीं लगे। कुछ अपनी जिद, तो कुछ अपनी गलत मान्यताओं के कारण अपराध के दलदल में फंसते चले जाते थे। हर कहानी में एक केंद्रीय किरदार होता था। उसके इर्द-गिर्द कुछ और चरित्र होते थे। उन्हें बड़ी बारीकी से गढ़ा जाता था। अब मैं उन तमाम चरित्रों को याद करता हूं तो यह समझ मे आता है कि उसके रचयिता ने तमाम मनोवैज्ञानिक पेंच की बुनियाद पर उन्हें सजीव बनाया जो कि वास्तव में एक कठिन काम है और हमारे बहुत से साहित्यकार भी इतने वास्तविक और विश्वसनीय चरित्र नहीं रच पाते।


इसके बाद बारी आती है रिप किर्बी की। इंद्रजाल में रिप किर्बी की पहली कहानी हिन्दी में रहस्यों के साए और अंग्रेजी में द वैक्स एपल के नाम से प्रकाशित हुई थी। साफ-सुथरे रेखांकन वाली इन कहानियों मे एक्शन बहुत कम होता था। मुझे रिप किर्बी की एक कहानी आज भी याद है, जिसमें रिप किर्बी और उनका सहयोगी एक ऐसे टापू पर जा पहुंचते हैं जो अभी भी 1830 के जमाने में जी रहा है। बाहरी दुनिया से उनका संपर्क हमेशा के लिए कट चुका है। वहां पर अभी भी घोड़ा गाड़ी और बारूद भरकर चलाई जाने वाली बंदूके हैं।


इस पूरी सिरीज में मुझे सबसे ज्यादा पसंद माइक नोमेड था। अभी तक मैंने किसी भी पॉपुलर कॉमिक्स कैरेक्टर का ऐसा किरदार नहीं देखा जो बिल्कुल आम आदमी हो। उसके भीतर नायकत्व के कोई गुण नहीं हों। यदि आपने कुछ समय पहले नवदीप सिंह की मनोरमा सिक्स फीट अंडर देखी हो तो अभय देओल के किरदार में आप आसानी से माइक नोमेड को आइडेंटीफाई कर सकते हैं। यह इंसान न तो बहुत शक्तिशाली है, न बहुत शार्प-तीक्ष्ण बुद्धि वाला, न ही जासूसी इसका शगल है। माइक नोमेड के भीतर अगर कोई खूबी है तो वह है ईमानदारी। अक्सर माइक को रोजगार की तलाश करते और बे-वजह इधर-उधर भटकते दिखाया जाता था। सच्चाई तो यह थी कि ये कैरेक्टर्स भारतीय पाठकों को बहुत अपील नही कर सके और इंद्रजाल प्रकाशन इनके जरिए फैंटम या मैंड्रेक जैसी लोकप्रियता नहीं हासिल कर सका।


एक और कैरेक्टर था गार्थ का। इस किरदार का संसार सुपरनैचुरल ताकतों से घिरा था। गार्थ अन्य कैरेक्टर्स के मुकाबले थोड़ा वयस्क अभिरुचि वाला था। गार्थ के रचयिताओं ने कई बेहतरीन क्राइम थ्रिलर भी दिए हैं। इसमें से एक तो इतना शानदार है कि बॉलीवुड में अब्बास-मस्तान उसकी नकल पर एक शानदार थ्रिलर बना सकते हैं। कहानी है जुकाम के उत्परिवर्ती वायरस की जो बेहतर घातक है [कुछ-कुछ स्वाइन फ्लू की तरह], इसकी खोज करने वाले प्रोफेसर की हत्या हो जाती है। प्रोफेसर की भतीजी, गार्थ और गार्थ के प्रोफेसर मित्र इस मामले का पता लगाने की कोशिश करते हैं। पता लगता है कि कुछ सेवानिवृत अधिकारियों और रसूख वालों ने अपराधियों को खत्म करने का जिम्मा उठाया है, एक गोपनीय संगठन के माध्यम से। वे एक के बाद एक अपराधियों को पहचान कर उन्हें ठिकाने लगाने में जुटे हैं। यह रोमांचक तलाश उन्हें ले जाती है हांगकांग तक, जहां एक बेहतर खूबसूरत माफिया सरगना इस त्रिकोणीय संघर्ष का हिस्सा बनती है। संगठन से जुड़े लोग हांगकांग की सड़कों पर मारे जाते हैं और उनका सरगना अपना मिशन फेल होने पर आत्महत्या कर लेता है।


इंद्रजाल की इस श्रंखला का आखिरी कैरेक्टर था सिक्रेट एजेंट कोरिगन। इस सिरीज के तहत प्रकाशित कहानियां दो किस्म की थीं। दोनों के चित्रांकन और कहानी कहने का तरीका बेहद अलग था। पहला वाला बेहद उलझाऊ और दूसरा बहुत ही सहज और स्पष्ट। पहले किस्म की कोरिगन की कहानियों को पढ़कर समझ लेना मेरे लिए उन दिनों एक चुनौती हुआ करता था। उन्हें पढ़ने के लिए विशेष धैर्य की जरूरत पड़ती थी, लगभग गोदार की फिल्मों की तरह। इसके रचयिता कम फ्रेम में बात कहने की कला में माहिर थे। मगर नैरेशन की कला का वे उत्कृष्ट उदाहरण थीं इनमें कोई शक नहीं।

एक्सट्रा शॉट्स

मेरी जानकारी में इंद्रजाल कॉमिक्स ने दो बिल्कुल अलग तरह की कॉमिक्स निकाली है। इनमें से एक है मिकी माउस की प्रलय की घड़ी। यह संभवतः साठ के दशक में प्रकाशित एक जासूस कहानी थी। मिकी माउस और गुफी के अलावा सारे चरित्र रियलिस्टिक थे। कहानी वेनिस की पृष्ठभूमि पर थी। वेनिस की नहरों, वहां की गलियों और पुलों का बेहद खूबसूरत चित्रण, उस कॉमिक्स के जरिए ही मैं वेनिस के बारे में जान सका। कहानी थी म्यूजियम में रखे गई एक अद्भुत मशीन की, जिसकी किरणें अगर किसी को ढक लें तो वह अदृश्य हो जाएगा। कुछ लोग साजिश रचकर वेनिस के जलमग्न होकर डूब जाने की अफवाह फैला देते हैं। देखते-देखते लोगों में भगदड़ मच जाती है और वे शहर छोड़कर जाने लगते हैं। इस बीच चोरों का दल उस मशीन को चुराने की कोशिश करता है जिसे मिकी माउस और गुफी नाकाम कर देते हैं।

सन् अस्सी में बाहुबली का मस्तकाभिषेक हुआ, जो हर बारह वर्ष बाद होता है। इसे उस दौर के मीडिया ने बहुत कायदे से कवर किया। शायद यह इंद्रजाल के मालिकानों की ख्वाहिश रही होगी, उस वक्त एक विशेष विज्ञापन रहित अंक निकला था जो अमर चित्रकथा स्टाइल में बाहुबली की कथा कहता था।

दिनेश श्रीनेत


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