इन्द्रजाल कॉमिक्स के पुराने पाठकों को शायद निजी जासूस रिप किर्बी की याद होगी. सम्भ्रान्त और कुलीन नजर आने वाले ये तेज दिमाग शख्स हमेशा आँखों पर मोटे फ़्रेम का चश्मा और हाथों में एक लम्बे से पाइप के साथ नजर आते थे. साथ ही मौजूद होता था इनका सहायक डेसमण्ड (जो इनका खानसामा भी होता था). डेसमण्ड कभी ऊंचे दर्जे का चोर रह चुका था और हाथ की सफ़ाई में बेहद माहिर था, हालांकि इन बुरी आदतों को वह किर्बी साहब की सोहबत में आने पर कभी का छोड़ चुका था.
जॉन प्रेंटिस |
तो आज पढ़ते हैं रिप किर्बी की एक इन्द्रजाल कॉमिक्स, "रेगिस्तानी लुटेरे". यह १९८२ का प्रकाशन है.
डाउनलोड करें "रेगिस्तानी लुटेरे" - रिप किर्बी, वर्ष १९८२
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कॉमिक्स का आवरण चित्र: मेरे मित्र कॉमिक वर्ल्ड के सौजन्य से
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13 टिप्पणियां:
"रेगिस्तानी लुटेरे". का कथानक यहाँ प्रस्तुत करने का आभार.."
Regards
धन्यवाद.
मजा आएगा, लम्बे काल के बाद पूनः पढ़ कर.
वेताल,मैण्ड्रेक,बहादुर और फ्लैश गोर्डन के बाद निस्संदेह रिप किर्बी ही इंद्रजाल कॉमिक्स के लोकप्रिय चरित्रों में अग्रणी रहे हैं.इनकी कहानियों की पृष्ठभूमि कुलीन एवं शालीन रही है जिसमे किर्बी साहब बड़ी नज़ाकत से अपने दिमाग के जौहर दिखाते रहे हैं.
इंद्रजाल कॉमिक्स के अन्य चरित्रों पर चर्चा स्वागतयोग्य है,पर समुचित एवं सुरिचिपूर्ण पाठकों की भागीदारी का अभाव निश्चय ही खलता है.
@सींमा गुप्ता जी: आपका स्वागत है.
@संजय बेंगाणी जी: मुझे खुशी हुई. आपका स्वागत है.
@Comic World: सही कहा. मुझे भी किर्बी की कहानियाँ पसंद हैं. पाठकों का उचित सहयोग मिले तो काम का मजा ही अलग है, फ़िर भी कोई बात नहीं. कुछ तो हैं ही. यही काफ़ी हैं.
एक अरसे के बाद रिप किर्बी कि कॉमिक पढने को मिली. आभार.
@खाडुभाई- स्वागत है आपका. धन्यवाद.
रिप किर्बी भी हमें पसंद था ...
कल मैंने भी 'रेगिस्तानी लुटेरों' पर थोड़ा-बहुत लिखा, पता नहीं था आपकी इस पोस्ट के बारे में, मेरी सोच एक सामान्य पाठक की हैं, बरसों बाद जब कॉमिक्स के बक्से को छुआ तो हिलोरें उठने लगी और ये सभी पात्र त्रि-आयामी रूप में सामने आ गए...
कई बॉक्स आँखों के आगे घूमने लगे
जैसे: जब 'जो' किर्बी और 'माँ' के सामने अपना दुखड़ा बयाँ करता है कि 'मेरी भतीजी मुझे न शराब पीने देती है, न सिगार, न जुआ खेलने देती है, न....' और 'माँ' सलाह देती है 'तुम पोलो क्यों नहीं....?' अगला तीर किर्बी मारता है 'बाग़वानी भी एक अच्छा शौक़ है'.... ख़तरनाक रेगिस्तानी 'चूहा' कितना असहाय हो जाता है.
http://www.facebook.com/l.php?u=http%3A%2F%2Fcomics-diwane.blogspot.com%2F2014%2F01%2Fblog-post_8.html%3Fspref%3Dfb&h=aAQF9vlyO
ये महज़ कॉमिक्स नहीं होते थे बल्कि बालमन के लिये दुनिया को जानने समझने का एक जरिया थे.
उस दौर में जब हम जैसे लोग बचपन से किशोरावस्था की ओर कदम बढ़ा रहे थे और टेलीविजन उपलब्ध नहीं था, तब इन चरित्रों और कथानकों का जादू एकदम सर चढ़कर बोलता था.
वास्तव में इस कहानियों को बार-बार पढ़ा जा सकता है बगैर इस बात की परवाह किये कि अब आप उम्र के किस दशक में हैं. उद्देश्यपूर्ण मनोरंजन का सटीक उदाहरण हैं ये कहानियाँ.
मैंने आपकी पोस्ट देखी. बहुत बढ़िया लिखा है आपने भी. लिंक यहां दे देता हूं
http://comics-diwane.blogspot.in/2014/01/blog-post_8.html
मैं उस ब्लॉग पे कोई कमेंट नहीं कर पा रही, न जाने क्यूँ?
सभी को जवाब देना चाहती हूँ पर दे नहीं पा रही...
u can find me at fb
despirtly want to talk with u
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